[भारतमित्र मंच द्वारा आयोजित जुलाई की मासिक प्रतियोगिता में विजेता का सम्मान प्राप्त ]
लेखन न केवल शौक बल्कि ज़िंदगी को जीने की ज़रुरत बन गयी है .नहीं बर्दाश्त कर पाती हूँ बहुत कुछ ऐसा अनर्गल प्रलाप जो कोई भी किसी भी कुछ न कहने वाले को कहे जाये और बस वहीँ चोट करती हूँ जहाँ देखती हूँ कि अत्याचार कुछ ज्यादा बढ़ रहा है और पा जाती हूँ समाचार पत्रों में स्थान और उस स्थान को कैसे सहेजूँ तो बना लिया एक ब्लॉग और किया आपसे इसको भी साझा .आप मेरे इस प्रयास के बारे में क्या सोचते हैं ज़रूरी समझें तो बताएं अवश्य .
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3 टिप्पणियां:
वर्ण -आश्रम है हमारा धर्म। हमारे स्वाभाव पूर्वजन्म के संस्कार के अनुसार चार वर्ण बतलाये गए हैं ब्राह्मण -क्षेत्रीय -वैश्य -शूद्र। जो श्रोत्रिय है उपनिषद का ज्ञाता है वह ब्राह्मण है जो इस ज्ञान के अतिरिक्त ब्राह्मणों की शेष समाज की सुरक्षा के लिए निमित्त है वह क्षत्रीय है जो कृषिकर्म करता है व्यापार करता है वह वैश्य है और जो सभी की समभाव सेवा का निमित्त बनता है वह शूद्र है। इस व्यवस्था में अपने पुरुषार्थ सेल्फ एफर्ट से शूद्र को प्रोन्नति करके ब्राह्मण बनने का अवसर उपलब्ध था क्योंकि यह व्यवस्था स्वभाव और गुणों के अनुरूप थी।ऊपर से नीचे भी व्यक्ति आता था आचरण में गिरावट के बाद। यह जन्म प्रधान व्यवस्था न होकर स्वभाव संस्कार प्रधान व्यवस्था थी ताकि समाज सुव्यवस्थित रूप चलता रहे। उसे हर व्यक्ति से महत्तम योगदान प्राप्त होता रहे।
आश्रम जीवन की विभिन्न अवस्थाएं हैं ब्रह्मचर्य (शिक्षा अर्जन ,सेलीबेसी ),ग्राहस्थ्य ,वनप्रवास (वानप्रस्थ )और संन्यास (रिनन्शिएशन ).
आधुनिक लिविंग टुगेदर इस आश्रम व्यवस्था का विचलन है डीवीएसशन है। जीवन यापन का यह निम्न स्तर है मानवेतर जीवों (पशुओं की तरह )इंस्टींक्टिव लिविंग है यह।
बढ़िया आलेख और पुरुस्कृत होने के लिए आपको पुनश्च बधाई।
वीरुभाई ,५१ १३१ ,अपलैंड व्यू स्ट्रीट ,
कैन्टन (मिशिगन )
४८ १८८ -३४८५
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
http://shalinikaushik2.blogspot.com/2014/08/blog-post_7.html?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+blogspot%2FTxmJU+%28kaushal%29
आपको बहुत बहुत बधाई ...
बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
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