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रविवार, 29 नवंबर 2015

भारत में असहिष्णुता है .[जनवाणी [पाठकवाणी ]में ३० नवम्बर २०१५ को प्रकाशित


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संविधान दिवस और धर्मनिरपेक्षता और असहिष्णुता पर संग्राम ये है आज की राजनीति का परिपक्व स्वरुप जो हर मौके को अपने लिए लाभ के सौदे में तब्दील कर लेता है .माननीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस मौके पर संविधान निर्माता के मन की बात बताते हैं वैसे भी इस सरकार के मुखिया ही जब मन की बात करते फिरते हैं तब तो इसके प्रत्येक सदस्य के लिए मन की बात करना जरूरी हो जाता है भले ही वह अपने मन की हो या किसी दुसरे के मन की .वे कहते हैं -
''संविधान निर्माता ने कभी भी ''धर्मनिरपेक्ष '' शब्द को संविधान में रखने के बारे में नहीं सोचा था , इसे तो १९७६ में एक संशोधन के जरिये शामिल किया गया किन्तु ये कहते समय उन्होंने संविधान की प्रस्तावना के सही शब्द पर गौर नहीं किया और बाद में अपनी बात को वजनदार बनाने के लिए सही शब्द को अपना सुझाव बता वाहवाही लूटने का काम अपनी तरफ से कर गए .जबकि अगर वे ध्यान से संविधान की प्रस्तावना पढ़ते तो अपनी बात कहने से बच सकते थे और संविधान निर्माता के मन की बात का ढोल पीटने से भी .भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है -
''हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुत्व संपन्न ,लोकतंत्रात्मक ,पंथनिरपेक्ष ,समाजवादी गणराज्य बनाने के लिए -दृढ़संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत ,अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं .''
पर जिस बात पर संसद में बहस छिड़ी है उसके लिए संविधान में शामिल इस शब्द को घसीटना एक बेतुकी बात ही कही जाएगी क्योंकि संविधान में भले ही पंथनिरपेक्षता शब्द हो या धर्मनिरपेक्षता इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है फर्क पड़ता है केवल उस सोच से जो भारत में इंसान -इंसान को बाँटने का काम करती है और सब जानते हैं ये काम यहाँ कौन कर रहा है. इसके लिए किसी विशेष व्यक्ति -धर्म -समुदाय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि यहाँ बहुत से व्यक्ति -समुदाय इस काम में जुटे हैं जो स्वयं को ऊपर और दूसरे को नीचे मानते हैं और जिसे नीचे मानते हैं उसे ऐसा दिखाने से चूकते भी नहीं .वे कहाँ ये देखते हैं कि संविधान हमें इस बात की इज़ाज़त देता है या नहीं .उनके लिए स्वयं के विचार ही महत्वपूर्ण हैं और ये भी सत्य है कि यहाँ मुसलमानों को इस तरह के व्यवहार का सर्वाधिक सामना करना पड़ता है .उन्हें मांसाहारी होने के कारण बहुत से संकीर्ण सोच वालों द्वारा अछूत की श्रेणी में रखा जाता है और उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया जाता है .ये मैंने स्वयं देखा है इसीलिए कह रही हूँ .मेरे साथ पढ़ने वाली एक छात्रा ने स्कूल में अपने बर्तनों का इस समुदाय की लड़की द्वारा इस्तेमाल होने पर स्कूल में हंगामा खड़ा कर दिया था .अब इसे क्या कहा जायेगा जब तक की उसे ये सोच उसके घर परिवार से नहीं मिली होगी तब तक वह ऐसा नहीं कर सकती थी .इसलिए इस समय जो यह संविधान में इस शब्द को लेकर बहस खड़ी कर हमारी सरकार गैरजरूरी बहस शुरू करना चाहती है उसका कोई औचित्य ही नहीं है और असहिष्णुता के लिए इसकी कोई जिम्मेदारी भी नहीं है .अगर सरकार वाकई देश में फैली असहिष्णुता के प्रति गंभीर है तो पहले संविधान की आत्मा को समझे और इसके निर्माताओं के ह्रदय की भावनाओं को जो देश में प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन देने की भावना रखती है और एक गरिमामय जीवन सम्मान चाहता है और आपसी प्रेम व् सद्भाव न कि बात बात में भारत छोड़े जाने की धमकी और सामाजिक जीवन में भेदभाव .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]

बुधवार, 25 नवंबर 2015

ये दायित्व सुब्रमनियम स्वामी का है-{जागरण जंक्शन ब्लॉग्स में २५ नवम्बर २०१५ को }


Rahul-2Subramanian Swamy.jpg
भारतीय राजनीति में ऐसे लोग कम नहीं जिनकी राजनीतिक रोटियां केवल और केवल गांधी परिवार की बुराई के चूल्हे पर ही सिंकती हैं और केवल इस परिवार की बुराई करकर ही वे स्वयं को बहुत बड़ा देशभक्त साबित करते हैं और इन्हीं नेताओं में से सर्वप्रमुख नेता हैं ''माननीय सुब्रमणियम स्वामी'' अभी हाल ही में वे एक बहुत बड़ा मुद्दा [केवल उनकी नज़रों में ] लेकर आये हैं और वह है राहुल गांधी के ब्रिटिश नागरिक होने का मुद्दा ,वे कहते हैं कि -
''राहुल ब्रिटिश नागरिक हैं ''

Rahul Gandhi is a British citizen, Subramanian Swamy says;

NEW DELHI: BJP leader Subramanian Swamy on Monday alleged that Congress vice-president Rahul Gandhi has claimed himself to be a British national before the authorities there and has demanded that he be stripped of Indian citizenship and Lok Sabha membership.
और अब वे कह रहे हैं कि ''राहुल साबित करें , वह ब्रिटिश नागरिक नहीं ''और अपने इस दावे के समर्थन में वे ब्रिटिश सरकार की आधिकारिक वेबसाइट से उपलब्ध दस्तावेज का हवाला देते हुए कहते हैं कि राहुल भारत के नहीं बल्कि ब्रिटिश के नागरिक हैं और अब राहुल साबित करें कि ये कागजात फर्जी हैं .
जहाँ तक हम जानते हैं सुब्रमणियम स्वामी एक जाने माने विधिवेत्ता हैं विकिपीडिया भी कहता है -
''डॉ॰ सुब्रह्मण्यम् स्वामी (जन्म: 15 सितम्बर 1939 चेन्नई, तमिलनाडु, भारत) जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। वे सांसद के अतिरिक्त 1990-91 में वाणिज्य, विधि एवं न्याय मन्त्री और बाद में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार आयोग के अध्यक्ष भी रहे''
और ऐसे में वे स्वयं जानते हैं कि यहाँ ये साबित करने का भार किस पर है चलिए अगर वे अपने इस भार से बचना चाहते हैं तो हम उन्हें बता दें कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा १०२ और १०३ उन्हें इससे बचने नहीं देंगी क्योंकि ये कहती हैं -
धारा १०२ -किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो असफल हो जायेगा ,यदि दोनों में से किसी भी ओर से कोई भी साक्ष्य न दिया जाये .
और धारा १०३ उस विशिष्ट तथ्य के बारे में सबूत के भार के बारे में कहती है जो सुब्रमणियम स्वामी जी यहाँ लाये हैं -
धारा १०३ - किसी विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है कि वह उसके अस्तित्व में विश्वास करे ,जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा .
और इस तरह यहाँ इस तथ्य को साबित करने का भार पूरी तरह से सुब्रमणियम स्वामी पर है क्योंकि वे मात्र अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं कोई पुख्ता सबूत पेश नहीं कर रहे .मात्र वहां की आधिकारिक वेबसाइट पर से उपलब्ध दस्तावेज के जरिये वे अपने अनर्गल प्रलाप को पुख्ता सबूत के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकते क्योंकि वेबसाइट कितना सही बोलती हैं यह अभी हाल में ही गूगल ने दिखा दिया जब प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में जवाहर लाल नेहरू के स्थान पर नरेंद्र मोदी को दिखाया गया .इसलिए अब सुब्रमणियम स्वामी पुख्ता सबूत पेश कर साबित करें कि राहुल ब्रिटिश नागरिक हैं तब आगे बात करें .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
{जागरण जंक्शन ब्लॉग्स में २५ नवम्बर २०१५ को }
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बुधवार, 18 नवंबर 2015

राजनीति में जमी आतंकवाद की जड़ें -जनवाणी [पाठकवाणी ] में प्रकाशित

जनवाणी  [पाठकवाणी ] में प्रकाशित आलेख के अंश

आलेख मूल रूप में यह है -
[राजनीति में जमी आतंकवाद की जड़ें ]


पेरिस में मुंबई जैसा आतंकवादी हमला , १२६ की मौत ,आई एस के फिदायीन हमलावरों ने भीड़ भरे सात स्थानों को निशाना बनाया -इस तरह की घटनाएँ कभी रुकने वाली हैं ऐसा कभी भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो तत्व इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार है वह इन्हें कभी रुकने नहीं देगा और भले ही किसी भी देश में ये घटनाएँ घटने पर वहां के हुक्मरान इनसे हताहत हुई जनता के दुःख को दूर करने के लिए आतंकवाद से निबटने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई दें किन्तु वास्तव में इन घटनाओं के पीछे अगर कोई है तो हुक्मरानों का यही प्रतिबद्धता का नाटक है क्योंकि हुक्मरानों की यह प्रतिबद्धता मात्र एक दिखावा है जो कि घटना के घटित होने पर तुरत प्रतिक्रिया के रूप में दिखाई जाती है और धीरे धीरे इस पर समय का मरहम लगा दिया जाता है और यही इस तरह की घटनाओं का मूल कारण है क्योंकि यह आम तौर पर देखने में आया है कि किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम से जो कि राजनीति के आकाश में अगर धुंधलका आता दिखाई देता है तो इस तरह के घटनाक्रम से उस आकाश को स्वच्छ करने की प्रक्रिया हमारे हुक्मरानों द्वारा अपनायी जाती है ऐसी ही कुछ मुंबई के आतंकवादी हमले के समय आशंकाएं उठी थी किन्तु जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि समय का मरहम सब कुछ भुला देता है और राजनीति अपना उल्लू सीधा करती रहती है .इसलिए जब फिर सब कुछ सुचारू रूप से चलता दिखाई देता है तब फिर से राजनीति को कुछ चुभन होती है और यह चुभन एक नये आतंकवादी हमले के रूप में दूर की जाती है और हर नया आतंकवादी हमला नए ज़ख्म दे जाता है और ध्यान फिर भटक जाता है और हमें डर की ओर धकेल जाता है .
कहने को कहा जायेगा कि ये हमला पेरिस में हुआ है भारत में नहीं, किन्तु जवाब वही है राजनीति पूरे विश्व में एक जैसी है ''अवसरवादी -अपना उल्लू सीधा करने वाली '' और रही बात आतंकवादी संगठन द्वारा इन हमलों की जिम्मेदारी लेने की तो यह किसे नहीं पता कि इन संगठनों को पनपने का अवसर कौन देता है .एक छोटा सा अपराधी धीरे धीरे बड़े आपराधिक गिरोह का सरगना बन जाता है ,पुलिस की नाक के नीचे ही वह कितनों को मौत के घाट उतार देता है पुलिस को उसका पता ही नहीं चलता लेकिन जब पुलिस की अपनी ही जान पर बन आती है तब न केवल वह अपराधी पकड़ा जाता है बल्कि मारा भी जाता है और यह तो रही छोटे स्तर की बात पर यह बात ही केवल छोटे स्तर की है छोटी है नहीं क्योंकि इन आतंकवादी हमलों में पुलिस की भूमिका में राजनीति के आकाश पर चमकते हमारे बड़े बड़े देश और इनके हुक्मरान हैं और ये जब तक चाहेंगे तब तक ये संगठन ऐसे ही अस्तित्व में रहेंगे और जब ये इनका ख़ात्मा चाहेंगे तब वह भी हो जायेगा और ओसामा बिन लादेन का सफाया इसका जीता जागता सबूत है .इसलिए अगर ये कहा जाये कि राजनीति की जमीन में ही आतंकवाद की जड़ें जमीं हैं और इसका ख़ात्मा मुश्किल नहीं तो कठिन अवश्य है तो यह सही ही होगा क्योंकि राजनीति अमर घुंटी पीकर ही पैदा हुई लगती है .



शालिनी कौशिक
[कौशल ]

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

गैंगरेप:मृत्युदंड पर बहस ज़रूरी [जागरण जंक्शन में २७ अक्टूबर २०१५ को प्रकाशित ]


Smashing rape - stock photoKOLKATA - MARCH 16 : A Christian Nun standing in prayer during a candle light vigil to protest gang rape of an elderly nun near Ranaghat on March 16, 2015 at Allen Park in Kolkata, India. - stock photo
मृत्युदंड एक ऐसा दंड जिसका समर्थन और विरोध हमेशा से होता रहा है पर जब जब इसके विरोध की आवाज़ तेज हुई है तब तब कोई न कोई ऐसा अपराध सामने आता रहा है जिसने इसकी अनिवार्यता पर बल दिया है हालाँकि इसका  समर्थन और विरोध न्यायपालिका में भी रहा है किन्तु अपराध की नृशंसता इस दंड की समाप्ति के विरोध में हमेशा से खड़ी रही है और इसे स्वयं माननीय न्यायमूर्ति ए.पी.सेन ने ''कुंजू कुंजू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य क्रिमिनल अपील ५११ [१९७८] में स्वीकार किया है .
''कुंजू कुंजू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के वाद में अभियुक्त एक विवाहित व्यक्ति था जिसके दो छोटे बच्चे भी थे .उसका किसी युवती से प्रेम हो गया और उससे विवाह करने की नीयत से उसने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों की रात में सोते समय निर्मम हत्या कर दी .''
इस वाद में यद्यपि न्यायाधीशों ने 2:1 मत से इन तीन हत्याओं के अभियुक्त की मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाना उचित समझा परन्तु न्यायमूर्ति ए .पी. सेन ने अपना विसम्मत मत व्यक्त करते हुए अवलोकन किया -
'' अभियुक्त ने एक राक्षसी कृत्य किया है तथा अपनी पत्नी तथा उससे पैदा हुए दो निर्दोष नन्हे बच्चों की हत्या करने में भी वह नहीं हिचकिचाया , यदि इस प्रकार के मामले में भी मृत्युदंड न दिया जाये तो मुझे समझ में नहीं आता कि मृत्युदंड और किस प्रकार के मामलों में दिया जा सकता है .''
उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने राजेन्द्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य ए .आई. आर १९७९ एस. सी. ९१६ के वाद में जोर देकर कहा कि जहाँ हत्या जानबूझकर , पूर्वनियोजित , नृशंस तथा बर्बरतापूर्ण ढंग से की गयी हो तथा इसके लिए कोई परिशमनकारी  परिस्थितियां न हों वहां सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से मृत्युदंड अनिवार्य रूप से दिया ही जाना चाहिए
न्यायमूर्ति ए.पी.सेन ने एक अन्य वाद में भी मृत्युदंड के सम्बन्ध में कहा -'' दंड के प्रति मानवीय दृष्टिकोण की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए . यदि कोई व्यक्ति किसी निर्दोष व्यक्ति की नृशंस और पूर्व नियोजित ढंग से हत्या करता है तो उसकी बर्बरता से न्यायालय की आत्मा दहल जाती है अतः उसे अपने कृत्य का परिणाम भुगतना ही चाहिए . ऐसे व्यक्तियों को जीवित रहने के अधिकार से वंचित किया जाना चाहिए .''
मृत्युदंड की वैधानिकता को निर्णीत करने का अवसर उच्चतम न्यायालय को एक बार फिर ''वचन सिंह बनाम पंजाब राज्य के वाद में मिला ए.आई.आर.१९८० सुप्रीम कोर्ट ८९८ ''के वाद में मिला .इस वाद में ५ न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ४:१ से विनिश्चित किया कि मृत्युदंड आजीवन कारावास के दंड के विकल्प के रूप में एक वैधानिक दंड है अतः यह अनुचित नहीं है और अनुच्छेद १४ , १९,तथा २१ का उल्लंघन नहीं करता है .......मृत्युदंड को वैकल्पिक दंड के रूप में उचित और आवश्यक ठहराते हुए उच्च न्यायालय ने अभिकथन किया कि मृत्युदंड को समाप्त किये जाने के विचार का समर्थन किये जाने के बावजूद विश्व के अनेक विद्वानों ने  [ जिसमे समाजशास्त्री ,विधिशास्त्री , न्यायविद तथा प्रशमनीय अधिकारी भी सम्मिलित हैं ] यह स्वीकार किया है कि सामाजिक सुरक्षा के लिए मृत्युदंड को यथावत बनाये रखना आवश्यक है तथापि बहुमत ने यह स्वीकार किया कि मृत्युदंड के प्रशासनीय परिस्थितियों का निर्वचन उदारता से किया जाना चाहिए ताकि इस दंड का उपयोग बिरले से बिरले मामलों में ही किया जाये ताकि मानव जीवन की गरिमा बनी रहे .
मानव जीवन की गरिमा का विचार अपराध के कारण को विचारकर भले ही न्यायालय या सुधारवादी कर लें किन्तु एक अपराध ऐसा है जिसमे मानव जीवन की गरिमा या उदारता का विचार अपराधी के सम्बन्ध में आना एक असहनीय बात प्रतीत होती है .वह अपराध है '' बलात्कार '' ,जिसमे अपराधी द्वारा पीड़ित की मानव जीवन की गरिमा को तार-तार कर दिया जाता है और पीड़िता ही वह व्यक्ति होती है जो अपने साथ हुए इस अपरध का दोहरा दंड भोगती है जबकि उसकी गलती मात्र एक होती है और वह है  '' नारी शरीर '' , जो उसे प्रकृति प्रदत्त होता है जिसमे वह स्वयं कुछ नहीं कर सकती है और इस सबके बावजूद उसके साथ अपराध घटित होने पर ये कानून और ये समाज दोनों ही उसके साथ खड़े नहीं होते और स्वयं के साथ अपराध के कारणों में उसकी कमी भी ढूंढी जाती है जो अपराधी के लिए फायदेमंद साबित होती है और वह एक निर्दोष के मानव जीवन की गरिमा का हरण कर भी आसानी से बरी हो जाता है .
१६ दिसंबर २०१२ को निर्भया गैंगरेप कांड के बाद हुए जनांदोलन के दबाव में भारतीय दंड संहिता में धारा ३७६ में बहुत से संशोधन किये गए जिसमे धारा ३७६ घ के रूप में सामूहिक बलात्संग सम्बन्धी धारा भी जोड़ी गयी ,जिसमे कहा गया कि -

''३७६-घ -सामूहिक बलात्संग -जहाँ किसी स्त्री से , एक या अधिक व्यक्तियों द्वारा एक समूह गठित करके या सामान्य आशय को अग्रसर करने में कार्य करते हुए बलात्संग किया जाता है , वहां उन व्यक्तियों में से प्रत्येक के बारे में यह समझा जायेगा कि उसने बलात्संग का अपराध किया है और वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से , जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम नहीं होगी , किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी जिससे उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास अभिप्रेत होगा , दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा .
परन्तु ऐसा जुर्माना पीड़िता के चिकित्सीय खर्चों को पूरा करने और पुनर्वास के लिए न्यायोचित और युक्तियुक्त होगा ;
परन्तु यह और कि इस धारा के अधीन अधिरोपित कोई जुर्माना पीड़िता को संदत्त किया जायेगा . ''
और इसी संशोधन के द्वारा एक धारा ३७६ ड़ का अन्तःस्थापन भी किया गया जिसमे इस अपराध के पुनरावृत्ति कर्ता के अपराधियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया गया .
अब सवाल ये उठता है कि जो अपराधी उदारता जैसे मानवीय गुणों से दूर है जिसमे मानवीय संवेदनाएं हैं ही नहीं ,एक नारी  शरीर मात्र जिनकी कई की सोचने समझने की शक्ति एक साथ  विलुप्त कर उनमे मात्र हवस वासना जैसे भावों को ही उभारता है क्या उनके लिए कानून या समाज में दया करुणा जैसे भावों से भरे दंड के भाव होने चाहियें ?

अभी २३ अक्टूबर २०१५ को दिल्ली से रावण दहन देखकर परिवार के साथ वापस आ रही १४ साल की किशोरी का जौंती मार्ग से अपहरण किया गया ,फिर पांच दरिंदों द्वारा उसके साथ गैंगरेप किया गया , उसकी हत्या की गयी और शव दफना दिया गया .पकडे गए आरोपियों के अनुसार ,''वह फुट-फूटकर गुहार लगा रही थी मुझे बख्श दो ,जाने दो लेकिन जितना वो चीखी चिल्लाई उतना ही उन दरिंदों की हैवानियत बढ़ती गयी ,दो घंटे तक वे उसका जिस्म नोचते रहे और जब लगा कि वह उन्हें पहचान लेगी तो ईंट मारकर उसे बेसुध कर दिया ,चुन्नी से गला घोंट दिया और मिटटी में शव दफ़न कर दिया और ये सब बताते वक्त आरोपियों के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई .क्या ऐसे में भी अपराधियों के द्वारा पुनरावृत्त इस अपराध की सम्भावना पर ही मृत्युदंड का विचार किया जाना चाहिए ?क्या एक किशोरी की मानव जीवन की गरिमा को तार-तार करने वालों की मानवीय जीवन की गरिमा का विचार करना चाहिए ?कहा जा सकता है कि बलात्कार के बाद हत्या में फांसी होती ही है किन्तु यदि ये ऐसे बलात्कार के बाद उसे छोड़ भी देते तो क्या उसके जीवन का उसके लिए कोई अर्थ रह गया था ? क्या आजीवन कारावास उन्हें सुधारने की क्षमता रखता है जो इतने अत्याचार करने के बाद भी सहज हैं ?
गैंगरेप एक ऐसा अपराध है जिसके लिए निर्विवाद रूप से मृत्युदंड का प्रावधान होना ही चाहिए क्योंकि एक नारी शरीर किसी एक की उत्तेजना को भले ही एक समय में बढ़ा दे किन्तु एक समूह को एकदम वहशी बना दे ऐसा संभव नहीं है ऐसा सोची समझी रणनीति के तहत ही होता है और जहाँ दिमाग काम करता है वहां दंड भी दिमाग के स्तर का ही होना चाहिए दिल के स्तर का नहीं और ऐसे में इस मामले के पांचों आरोपियों के मृत्युदंड के साथ ही गैंगरेप के समस्त मामलों में मृत्युदंड का ही प्रावधान होना चाहिए .


[जागरण जंक्शन में २७ अक्टूबर २०१५ को प्रकाशित ]
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शालिनी कौशिक
[कानूनी ज्ञान ]

सोमवार, 3 अगस्त 2015

याकूब या कोली :फांसी नहीं न्याय की हमजोली published in janvani [cyber world ] on 3 aug 2015


वरुण गांधी भी कूदे बहस मेंफैसले की आलोचना करते हुए दिया इस्तीफा
1993 के मुंबई सीरियल ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के बाद भारत में फांसी की सजा खत्म करने की आवाज तेज हो रही है। तमाम सामाजिक संगठनों के बाद अब भाजपा सांसद वरुण गांधी भी इस बहस में कूद पड़े हैं और इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट के डिप्टी रजिस्ट्रार ने भी इस्तीफा दिया है सर्वोच्च न्यायालय के डिप्टी रजिस्ट्रार और डेथ पेनाल्टी रिसर्च प्रोजेक्ट के डायरेक्टर प्रो.अनूप सुरेन्द्र नाथ ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की आलोचना करते हुए इस्तीफा दे दिया है, जिसमें न्यायालय ने 1993 मुंबई ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन की आखिरी दया याचिका खारिज कर दी थी।
वरुण गांधी ने फांसी की सजा का पुरजोर विरोध किया है। एक लेख में वरुण ने मौत की सजा पर कई सवाल उठाए हैं। उनके लेख में किसी एक शख्स की फांसी का जिक्र नहीं है, लेकिन उन्होंने फांसी की सजा को क्रूर बताया है।
वरुण ने कहा है कि मौत की सजा पाने वालों में से 75 फीसदी सामाजिक और आर्थिक स्तर पर दरकिनार श्रेणी के लोग हैं। ऐसे मामलों में 94 फीसदी लोग दलित समुदाय या अल्पसंख्यक हैं। मौत की सजा गरीबी की वजह से कमजोर कानूनी लड़ाई का नतीजा है।
हालाँकि वरुण की बात में आधी ही सच्चाई है किन्तु आधी तो है और निठारी कांड में कोली को मिली हुई फांसी की सजा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है .
अब अगर हम याकूब मेनन को हुई फांसी पर विरोध को मद्देनज़र रखें तो ये विरोध उनके कृत्य को देखते हुए हम सही नहीं कहेंगें किन्तु याकूब इस सजा के नहीं वरन तिल-तिल कर अपने अपराध की सजा भुगतने के पात्र थे क्योंकि इस तरह वे एक बार में ही अपने अपराध के दंड से मुक्त हो गए उन्होंने जो किया था उसका वास्तविक दंड वह होता जो वे अपने अपनों से दूर रखकर भुगतते क्योंकि तभी उन्हें उस पीड़ा का एहसास होता जो उन्होंने औरों को दी .
फाँसी से हम एक अपराधी का अंत कर सकते हैं सम्पूर्ण अपराध का नहीं .हमें स्वयं में हिम्मत लानी होगी कि ऐसी घटनाओं को नज़रअंदाज न करते हुए न केवल अपने बचाव के लिए बल्कि दूसरे किसी के भी बचाव के लिए कंधे से कन्धा मिलकर खड़े हों .ये सोचना हमारा काम नहीं है कि जिसके साथ घटना हो रही है शायद उसका भी कोई दोष हो .हमें केवल यह देखना है कि जो घट रहा है यदि वह अपराध है तो हमें उसे रोकना है और यदि इस सबके बावजूद भी कोई घटना दुर्भाग्य से घट जाती है तो पीड़ित को समाज से बहिष्कृत न करते हुए उसके समाज में पुनर्वास में योगदान देना है और अपराधी को एकजुट हो कानून के समक्ष प्रस्तुत करना है ताकि वह अपने किये हुए अपराध का दंड भुगत सके .सिर्फ कोरी बयान बाजी और आन्दोलन इस समस्या का समाधान नहीं हैं बल्कि हमारी अपराध के सच्चे विरोध में ही इस समस्या का हल छुपा है .चश्मदीद गवाह जिनके कारण इलाहबाद हाईकोर्ट को मुज़फ्फरनगर की जिला अदालत में सरेंडर करने पहुंचे मुल्ज़िम को कोर्ट रूम से घसीटने के आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी करना पड़ा है ,ये ही चश्मदीद गवाह जो कि सब जगह होते हैं किन्तु लगभग हर जगह अपने कर्तव्य से पीछे हट जाते हैं किसी भी मामले को सही निर्णय  तक पहुंचा सकते हैं और ऐसी घटनाओं में हमें अपनी ऐसी भूमिका के निर्वहन को आगे बढ़ना होगा क्योंकि ये एक सत्य ही है कि ज़रूरी नहीं कि हमेशा कोई दूसरा ही ऐसी घटना का शिकार हो कल इसके शिकार हम या हमारा भी कोई हो सकता है इसलिए सच्चे मन से न्याय की राह पर आगे बढ़ना होगा .इसलिए अगर हममें कुछ कहने का साहस है कुछ करने की हिम्मत है तो न्याय का साथ देना होगा और अपराध को अपनी हिम्मत से कमज़ोर करना होगा न कि फांसी को अपने कानून द्वारा दिए जाने वाले दंड में शामिल कर अपराधियों को डराने के एक कमजोर अस्त्र के प्रयोग द्वारा अपराध को ख़त्म करने की कोशिश द्वारा .
याद रखिये फाँसी निबटा देती है अपराधी को अपराध को नहीं .वह अपराधी को पश्चाताप का अवसर नहीं देती हालाँकि हर अपराधी पश्चाताप की ओर अग्रसर भी नहीं होता किन्तु एक सम्भावना तो रहती ही है और दूसरी बात जो वीभत्स तरीका वे अपराध के लिए अपनाते हैं फाँसी उसका एक अंश भी दंड उन्हें नहीं देती .आजीवन कारावास उन्हें पश्चाताप की ओर भी अग्रसर कर सकता है और यही वह दंड है जो तिल तिल कर अपने अपराध का दंड भी उन्हें भुगतने को विवश करता है .
[published in janvani [cyber world ]on 3 aug 2015 ]

शालिनी कौशिक


[कौशल ]

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

Published in Janwani ''PATHAKVANI'' on 10 july 2015


image/jpg: Senior BJP leader Kalyan Singh, during an election campaign rally in Mathura on Sunday night.
Governor of Rajasthan and chancellor Kalyan Singh on Tuesday once again created a controversy by suggesting that the word ‘adhinayak’ in the national anthem should be removed as it praises the British rulers of pre-Independence era.
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर भारत के बँगला साहित्य के शिरोमणि कवि थे.
उनकी कविता में प्रकृति के सौंदर्य और कोमलतम मानवीय भावनाओं का उत्कृष्ट चित्रण है.
"जन गण मन" उनकी रचित एक विशिष्ट कविता है जिसके प्रथम छंद को हमारे राष्ट्रीय गीत होने का गौरव प्राप्त है.
गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर, काव्यालय की ओर से, आप सबको यह कविता अपने मूल बंगला रूप में प्रस्तुत है.
बंगला मूल
जन गण मन
शब्दार्थ
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगल दायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे
अहरह तव आह्वान प्रचारित
शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु बौद्ध शिख जैन
पारसिक मुसलमान खृष्टानी
पूरब पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गाँथा
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे
अहरह: निरन्तर; तव: तुम्हारा
शुनि: सुनकर
आशे: आते हैं
पाशे: पास में
हय गाँथा: गुँथता है
ऐक्य: एकता
पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा
युगयुग धावित यात्री,
हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
अभ्युदय: उत्थान; बन्धुर: मित्र का
धावित: दौड़ते हैं
माझे: बीच में
त्राता: जो मुक्ति दिलाए
परिचायक: जो परिचय कराता है
घोर-तिमिर-घन-निविड़-निशीथे
पीड़ित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल
नत-नयने अनिमेष
दुःस्वप्ने आतंके
रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता,
जन-गण-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
निविड़: घोंसला
छिल: था
अनिमेष: अपलक
करिले: किया; अंके: गोद में
रात्रि प्रभातिल उदिल रविछवि
पूर्व-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहन्गम, पुण्य समीरण
नव-जीवन-रस ढाले,
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा,
जय जय जय हे, जय राजेश्वर,
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर
प्रभातिल: प्रभात में बदला; उदिल: उदय हुआ
* * *
कल्याण सिंह जो इस वक्त राजस्थान के राज्यपाल हैं ने एक बार फिर साबित किया है कि भाजपाई देश के बारे में बहुत ही कम और अधिकांशतया गलत ज्ञान ही रखते हैं .उन्होंने अधिनायक शब्द को अंग्रेजों से जोड़कर इसे हटाने की मांग की है जबकि वे स्वयं जानते हैं कि हमारा देश गणतंत्र है और यहाँ जनता का शासन है ऐसे में इसके रचनाकाल के समय भले ही अंग्रेजों का शासन रहा हो भले ही इसकी रचना १९११ में की गयी हो किन्तु जिस वक्त इसे राष्ट्रीय गान के रूप में स्थापित किया गया देश गणतंत्र घोषित किया जा रहा था और देश पर हम भारत के लोगों का ही राज्य स्थापित हो रहा था क्योंकि यह सब हमारे देश के संविधान के अंतर्गत किया जा रहा था जिसकी प्रस्तावना में मुख्य शब्द ही '' हम भारत के लोग '' हैं इसलिए कल्याण सिंह जी को याद रखना चाहिए कि हम ही इस देश के अधिनायक हैं और इसे देश के राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार करने वाले इस देश के लिए अपने प्राणों की परवाह न कर देश पर अपना सर्वस्व लुटाने वाले न कि सत्ता की खातिर अपमान के घूँट पीकर वापस उसी पार्टी में लौटने वाले जिस के अपने संगी-साथियों की विचारधारा पर वे स्वयं ही ऊँगली उठा चुके थे और स्वयं इस पार्टी के खिलाफ मैदान में उतर चुके थे .
अंत में ,उन्हें एक बात और याद कर लेनी चाहिए कि जिन रविन्द्र नाथ टैगोर जी के द्वारा लिखित ''जन-गण-मन'' में अधिनायक शब्द को वे अंग्रेजों के प्रति भक्ति से जोड़ रहे हैं उन्ही रविन्द्र नाथ जी ने जलियाँ वाला कांड के विरोध में अंग्रेजों द्वारा दी गयी '' नाइट-हुड '' की उपाधि को लौटा दिया था .
Published in Janwani ''PATHAKVANI'' on 10 july 2015

शालिनी कौशिक
[कौशल]

शनिवार, 20 जून 2015

दैनिक जागरण के जागरण जंक्शन में प्रकाशित 21.6.2015 को

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आजकल चारों तरफ भारत में बस एक ही चर्चा है कोई कह रहा है कि हम इसमें शामिल होंगे तो कोई कह रहा है हम इसे नहीं मनाएंगे इशारा है केवल और केवल अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की तरफ जिसे भाजपा भुनाने की मुहीम में जुटी है .देश की संस्कृति में सदियों से रची बसी इस अमूल्य निधि को हड़पने की कोशिश में भाजपा अपने तन मन से जुट गयी है .ठीक वैसे ही जैसे राम मंदिर को और राम को अपनी निधि भाजपा ने ऐसे दिखाया कि अगर कोई और आज के समय में ''जय श्री राम '' का उच्चारण कर ले तो फ़ौरन भाजपाइयों को अपनी सत्ता पर खतरा महसूस होने लगता है और वे फ़ौरन कुत्सित राजनीतिक टिप्पणियों पर आ जाते है जैसे राम नाम लेने का अधिकार केवल भाजपा को है .ऐसे में सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि जो राम को ही न समझा वह उनका हो ही कैसे सकता है जबकि राम ने तो मानव मात्र में भेद न करना ही सिखाया था और ये तो भाई-भाई में ही भेदभाव को पैदा कर रहे हैं .ऐसे ही योग को अपनी बपौती मानते हुए आज ये केवल योग योग का उच्चारण कर रहे हैं और ऐसा दिखा रहे हैं जैसे योग के ये ही मालिक हैं और इनका यह दिखाना ही इस देश में योग के लिए ऐसे ऐसे बयानों को जन्म दे रहा है जिनका योग के गुण-प्रभाव से दूर दूर तक भी कोई नाता नहीं है .जहाँ तक हम सब योग के बारे में जानते हैं यह कोई साधना की पद्धति नहीं है यह आज के तनावपूर्ण भौतिकवादी जीवन से मनुष्य मात्र को शांति पहुँचाने का एक साधन है और शरीर के अंगों पर पड़ते जीवन के काम-काज के दुष्प्रभाव दूर करने के लिए इसे हमारे ऋषियों-मुनियों द्वारा आज़माया जाता रहा है और इसलिए इसका इस्तेमाल हमेशा से भारत में होता रहा है किन्तु भाजपा को देश की ऐसी अमूल्य निधियों को हड़पने की हमेशा से महत्वाकांक्षा रही है जिसके माध्यम से वह यहाँ के एक समुदाय को अपनी ओर खींचकर उसके मन में दुसरे समुदाय के प्रति द्वेषभाव भर सके और वह इसीका माध्यम अब योग को बना रही है और इसी कारण योग को लेकर गलत और जहर भरी बयान बाजी हो रही है और भाजपा इसे निरंतर तूल दे रही है कभी प्रधानमंत्री के योग के समाचार आ रहे हैं कभी अमित शाह पटना में मुस्लिम योग टीचर से विशेष प्रशिक्षण की बात कर रहे हैं कभी रविशंकर प्रसाद ,रूडी ,राधा मोहन सिंह ,राम कृपाल यादव के पटना में विशेष योग कैम्प में शामिल होने की बातें समाचारों में आ रही हैं आखिर क्यों केवल योग योग को ही गाया जा रहा है जून में और भी दिवस इस बीच में पड़े हैं किन्तु उनमे भाजपा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई न ही कोई कार्यवाही उनके सम्बन्ध में हुई .वे दिवस इस प्रकार हैं -
५ जून -विश्व पर्यावरण दिवस
८ जून -विश्व महासागर दिवस
१२ जून -विश्व बालश्रम निरोध दिवस
१४ जून -विश्व रक्तदान दिवस
१५ जून -World Elder Abuse Awarness Day
१७ जून -World Day to Combat Desertification
२० जून -विश्व शरणार्थी दिवस
२१ जून -विश्व योग दिवस
इनका अवलोकन किये जाने पर हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि न तो १२ जून को बालश्रम के समबन्ध में भाजपा ने कोई स्वस्थ प्रतिक्रिया दी न १४ जून को भाजपाइयों ने रक्तदान किया और ही अन्य दिवसों में कोई सार्वजनिक कार्यक्रम के जरिये इनपर कोई सन्देश जनता तक पहुँचाया गया .केवल योग योग को ही गाकर भाजपा इसे अपनाना चाह रही है और इसे राम मंदिर की तरह इस देश में अपने वोट बैंक में शामिल करना चाह रही है जबकि यह हमेशा से इस देश और देशवासियों की निधि रहा है और रहेगा .हिन्दू मुस्लिम को इस तरीके से बाँटने की भाजपा की राजनीति इस देश में नहीं चल पायेगी यहाँ हिन्दू भी योगी रहा है और मुस्लिम भी .
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सम्राट अकबर की जीवन चर्या और हमारे योगियों की जीवनचर्या यहाँ योग पर ही आधारित रही है और ये दोनों हिन्दू-मुस्लिम के दिलों दिमाग पर रहना ही चाहिए न कि भाजपा की हडपों और बांटों की राजनीति .
[दैनिक जागरण के जागरण जंक्शन में प्रकाशित 21.6.2015 को]
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शालिनी कौशिक
[कौशल ]

गुरुवार, 4 जून 2015

published in janvani ''pathakvani '' 4 june 2015


मॉनसून देगा इस बार भी धोखा
'अच्छे दिन ' जाने वाले हैं ,मौसम विभाग ने दिए सूखे के संकेत ,17 साल पुराने केस में BJP विधायक समेत 15 दोषी,पी ओ के में पाक की 'चुनावी चाल' से भारत नाराज़ ,हद है! चलती रोडवेज बस में युवती से फिर गंदी हरकत [सभी अमर उजाला से साभार ]
रोपड़ व काठगढ़ के बीच युवक ने बदतमीजी शुरू कर दी
प्रधानमंत्री मोदी जी कहते हैं कि 'देश के अच्छे दिन आ गए ''.वे देश में अच्छे दिन लाने का वादा कर सत्ता में आये हैं और ये तो साफ है कि वे अपने वादे को पूरा करने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं और इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी फ़ौज को लगा रखा है लेकिन सच्चाई को नकारना न तो उनके हित में है और न ही देश के .समाचार पत्र के जिस पेज पर उनकी अच्छे दिन आने की सूचना को मात्र एक छोटा कॉलम मिला है उसी पेज पर इस सच्चाई को पूरा पेज मिला है कि देश की वास्तविक स्थिति इस वक्त क्या है ?'' देवबंद के पी.एन.बी.में १०.६१ लाख रूपये की डकैती ,बी.एस.एन .एल .कर्मी ने दफ्तर में जहर खाकर दी जान ,तीसरी बार लीक हुआ यूपीटीयू का पेपर '' ये तो आज के समाचार हैं और समाचार तो अभी जानते ही हैं -पश्चिमी यु पी में बारिश से फसल बर्बाद ,किसानों द्वारा रोज आत्महत्याओं का बढ़ता आंकड़ा ,रोज बढ़ती जा रही रेप की घटनाएँ ,दंगों के कारण खाली होते वेस्ट यु पी के कसबे , पाकिस्तान की बढ़ती जा रही कारगुजारियां ,महंगाई के कारण आम आदमी से छिनती रोटी -दाल और न जाने क्या क्या रोज समाचार पत्रों में पढ़ रहे हैं और स्वयं अपने आस पास देख भी रहे हैं अगर ऐसे हालत को देखते हुए देश के अच्छे दिन कहे जा सकते हैं और एक विशाल बहुमत लेकर जननायक के तौर पर उभरने वाले मोदी जी को वे ' देश के अच्छे दिन ' लग सकते हैं तो शायद ऐसा ही होगा क्योंकि वे गलत कैसे हो सकते हैं उनके जैसा प्रधानमंत्री न पहले कभी देश को मिला है और न ही मिलेगा जो जनता के जलते दिल-उजड़ती ज़िंदगी को देश के अच्छे दिन कहेगा .इसलिए ऐसे में तो बस यही कहा जा सकता है -
''दुश्मन न करे दोस्त ने जो काम किया है ,
उम्र-भर का गम हमें ईनाम दिया है .''
[PUBLISHED IN JANVANI'S PATHHAKVANI ON 4 JUNE 2015]

शालिनी कौशिक
[कौशल ]

सोमवार, 25 मई 2015

[PUBLISHED IN JANVANI {PATHAKVANI }ON 25.MAY.2015 ]



हरिश्चंद्र ''नाज़'' के ये शब्द आज के एक समाचार पर ध्यान जाते ही मेरे जहन में उभर आये ,शब्द कुछ यूँ थे -
''यूँ गुल खिले हैं बाग़ में ख़ारों के आस-पास ,
जैसे कि गर्दिशें हों सितारों के आस-पास .
रौनक चमन में आ गयी लेकिन न भूलना
शायद खिज़ा छुपी हो बहारों के आस-पास .''
और समाचार कुछ यूँ था -
''महंगाई पर काबू पाना सरकार की अहम उपलब्धि -जेटली ''
और महंगाई पर काबू पाना ऐसा ही गुल है जो वर्तमान सरकार जैसी खार के पास खिलने की कोशिश में है किन्तु जैसे कि खार में गुल नहीं खिलते ऐसे ही वर्तमान सरकार द्वारा महंगाई पर काबू जैसे गुल खिलाने की आशा ही व्यर्थ है और अरुण जेटली जी को महंगाई काबू में दिख रही है वह महंगाई जो इस वक्त पिछली यू.पी.ए.सरकार की अपेक्षा भी दिनों दिन तरक्की की राहों पर जा रही है .अगर हम अपनी रोज़मर्रा की चीज़ों का ही आकलन करें तो हमें साफ नज़र आता है कि महंगाई की स्थिति क्या है -अरहर की दाल जो इस सरकार से पहले हमें ७२ रूपये किलो मिल रही थी वह अब १०० रूपये किलो से ऊपर जा रही है .सब्जियां जो पहले कम भाव पर मिलती दिख जाती थी अब कोई भी कम दाम में नहीं मिलती .प्याज़ १२ रूपये किलो की जगह अब २५ रूपये किलो मिल रहा है .फलों में चीकू २० की जगह ४० के भाव में बिक रहा है .रही पेट्रोल -डीज़ल की बात तो जो फायदा इसका अपनी गाड़ी इस्तेमाल करने वालों को हुआ है वो फायदा आम जनता को नहीं क्योंकि किरायों में कहीं कोई कमी नहीं हुई है .
देखा जाये तो मोदी सरकार अभी तक अपने हर वायदे पर खोटी ही साबित हुई है क्योंकि काला धन लाने का वायदा इन्होने खुद ही तोड़ दिया ,अच्छे दिन लाने का इनका इरादा प्रकृति ने तोड़ दिया और जितने किसानों को इनके कार्यकाल के आरम्भ में ही आत्महत्या को गले लगाना पड़ गया उतना आज तक किसी सरकार के कार्यकाल में नहीं करना पड़ा विशेषकर पश्चिमी यूपी के किसानों को .हाँ इतना अवश्य है कि इस सरकार ने इस तरह की परिस्थितियां शायद पहले ही भांप ली थी और इसलिए धारा ३०९ द्वारा घोषित आत्महत्या के अपराध को अपराध की श्रेणी से अलग किये जाने की पहल कर ली थी .ऐसे में जेटली जी द्वारा महंगाई कम होने का बखान और उसका श्रेय मोदी सरकार को देना ऐसे ही कहा जायेगा जैसे ये सब एक झूठ की रात का चाँद ही हो किन्तु अभी इस स्थिति पर अफ़सोस ही किया जा सकता है और आगे आने वाली सरकार से उम्मीद .जो कि कभी भी पूरी होनी मुश्किल है क्योंकि हर सरकार बनने से पहले आम जनता की होती है और बाद में पूंजीपतियों की .इसलिए ए .बी.भारतीय के शब्दों में बस यही कहा जा सकता है -
''झूठ की रात के हर चाँद को ढल जाने दो ,
सच के सूरज को अंधेरों से निकल आने दो ,
धुल कितने ही अज़ाबों की जमीं है इस पर
आज इस दिल को ज़रा अश्कों से नहलाने दो .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
[PUBLISHED IN JANVANI {PATHAKVANI }ON 25.MAY.2015 ]

शुक्रवार, 22 मई 2015

[PUBLISHED IN JANWANI''S PATHHAKVANI ON 22MAY2015]


good servant but a bad master -सोशल साइट्स
जनलोकपाल का मुद्दा और जनांदोलन कोई ऐसी नयी बात नहीं थी पहले भी ऐसे बहुत से मुद्दे लेकर जनांदोलन होते रहे  और थोड़ी बहुत असहज परिस्थितियां सरकार के लिए उत्पन्न करते रहे किन्तु यह आंदोलन अन्ना और केजरीवाल की अगुआई में एक ऐसा आंदोलन बना कि सरकार की जड़ें हिला दी कारण था इसका सोशल साइट्स से भी जुड़ा होना और सोशल साइट्स के माध्यम से जनता के एक बहुत बड़े वर्ग की इसमें भागीदारी और इसी का परिणाम रहा दशकों से लटके जनलोकपाल के मुद्दे पर सरकार का सकारात्मक कदम उठाना।
रेप ,गैंगरेप रोज़ होते हैं थोड़ी चर्चा का विषय बनते हैं और फिर भुला दिए जाते हैं किन्तु १६ दिसंबर २०१२ की रात को हुआ दामिनी गैंगरेप कांड देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को हिला गया और इसका कारण भी वही था सोशल साइट्स ,सोशल साइट्स के माध्यम से रातो रात ये खबर सारे विश्व में फ़ैल गयी और इन सोशल साइट्स ने ही जगा दी संवेदना सदियों से सोयी उस दुनिया की जो रेप ,गैंगरेप की दोषी पीड़िता को ही मानते रहे सदा सर्वदा और पहली बार दुनिया उठ खड़ी हुई एक पीड़िता के साथ इस अपराध के खिलाफ उसके लिए न्याय की मांग करने को .
महंगाई ,भ्रष्टाचार ,महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचार मुद्दे पहले भी थे और ऐसी ही निन्दित अवस्था में थे जैसे अब हैं लेकिन सोशल साइट्स ने यहाँ भी अपना सशक्त योगदान दिया और उखाड़ फेंका दस साल से जमी यू,पी,ए.सरकार व् १५ साल से दिल्ली में जमी शीला दीक्षित सरकार को .
किन्तु ऐसा नहीं कि सोशल साइट्स केवल सोशल ही हों, ये सामाजिक रूप से यदि सकारात्मक कार्य कर रही हैं  तो असामाजिकता में भी पीछे नहीं हैं .फेसबुक ट्विटर ऐसी सोशल साइट्स  बन चुकी हैं जिनका इस्तेमाल न केवल समाज को जोड़ने में किया जा रहा है बल्कि समाज तोड़ने में भी ये पीछे नहीं हैं -धार्मिक उन्माद फैलाना हो तो फेसबुक ,साम्प्रदायिक दंगे करवाने हों तो ट्विटर ,लड़की को बहकाना हो तो फेसबुक ,लड़के को पागल बनाना हो तो फेसबुक ,और ये सब साबित होता है इन समाचारों से जो आये दिन हम पढ़ते हैं समाचारपत्रों में ,देखते हैं अपने आस पास -
*मंगलवार २९ जुलाई २०१४ का अमरउजाला इन सोशल साइट्स की असलियत से जुडी तीन ख़बरें प्रकाशित करता है -
१-खटीमा [ऊधमसिंह नगर ]-फेसबुक पर सहारनपुर दंगे से सम्बंधित फोटो टैग कर धार्मिक उन्माद फ़ैलाने के आरोप में पुलिस ने एक युवक को गिरफ्तार किया है .
२-सहारनपुर में दंगों के समाधान के रूप में गुजरात मॉडल की वकालत करने वाले भाजपा विधायक व् पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य सीटी रवि बाद में अपने ट्वीट पर सफाई देते नज़र आये .
३-इंदौर-२३ वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर युवती का फेसबुक पर फ्रेंड बने युवक ने बुलाकर धोखे से अश्लील वीडियो बनाया .
**मेरठ में भारत से जुडी गोपनीय सूचनाये हासिल करने के लिए सोशल साइट्स ने युवतियों को खास ट्रेनिंग दे रखी है यह खुलासा इंटेलिजेंस द्वारा विज्ञानं शिक्षक दीपक शर्मा से की गयी पूछताछ में हुआ है उनसे एक युवती रानी ने चैटिंग में अपना नाम रेनू रख कहा -
''साइंस से प्यार करती हूँ इसलिए आपको बनाया दोस्त .''
यही नहीं सेना के और भी जवानों को भेजी फ्रेंड रिक्वेस्ट .
यही नहीं आज हाईटेक युवाओं पर आतंकियों की नज़र है और वे इन सोशल साइट्स के माध्यम से इनसे जुड़ रहे हैं .
ये सोशल साइट्स आज हर तरह के काम कर रही हैं एक तरफ ये लोगों की मददगार भी बन रही हैं और एक तरफ चैन हराम करने वाली  भी .यूनिवर्सिटी ऑफ़ अलबामा के असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ.पाविका शेल्डन ने बताया कि शोध में शर्मीले लोग फेसबुक पर ज्यादा वक्त बिताते हैं .साथ ही एक नए शोध के मुताबिक सोशल मीडिया पर वजन घटाने के तरीके भी लोग सीख रहे हैं लन्दन के इम्पीरियल कालेज में १२ शोध का साझा नतीजा यही है कि सोशल मीडिया से मोटापा घटाने में मदद मिल रही है .साथ ही हमारी सरकार भी इस और अब सक्रियता दिखाकर जनता की मददगार बन रही है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है -

ट्विटर पर अखिलेश चौंका देंगे आपको

ट्वीट करते ही आया सीएम का जवाब
चार दिन बीत चुके थे। वह सारी भाग-दौड़ कर चुका था। यहां तक कि लाइनमैन को घूस देने को भी तैयार था। लेकिन कोई भी उसके घर की बिजली ठीक करने को तैयार नहीं था।
आखिर पांचवे दिन उसने गुस्से में उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ट्वीट किया। उसने लिखा कि 'नोएडा सेक्टर 52 में पश्चिमांचल विधुत के जेई ने मुझसे घूस मांगी है और चुनौती दी है कि जो करना है कर लो।'
आपको जानकर हैरानी होगी कि उसी दिन शाम को चार बजे मुख्यमंत्री कार्यालय से जवाब आया कि आप अपना फोन नंबर भेजें।
इस प्रकार आज ये सोशल साइट्स दोस्त व् दुश्मन दोनों रूप में हैं जिनसे न मिलते बनता है न बिछड़ते ,न निगलते बनता है न उगलते ,समझ का इस्तेमाल हो तो सही और न हो तो गलत ये विश्वास बनाती भी हैं और बिगाड़ती भी ,सम्बन्ध बनाती भी हैं और तोड़ती भी ,एक तरफ हम इनके माध्यम से विश्व से जुड़ रहे हैं किन्तु ये भी सच्चाई है कि इन्हीं के माध्यम से अपने घर ,समाज से कट रहे हैं उन्हें तोड़ रहे हैं .इसलिए इनके बारे में ,जैसे विज्ञानं के लिए कहा गया है कि -
''science is a good servant but a bad master .''
ऐसे ही इन सोशल साइट्स के लिए भी कहा जा सकता है -
''social sites are good servant but bad master .
अर्थात इन्हें यदि हम अपने ऊपर हावी न कर अपनी समझ से इस्तेमाल करते हैं तो ये सही और यदि इन्हें हावी कर इनके हिसाब से चलते हैं तो गलत .वास्तव में सोशल होना हम पर निर्भर है ,समाज चलना व् समभलना हम पर निर्भर है इन साइट्स पर नहीं ये केवल हमारे हाथ में है कि हम इनके माध्यम से समाज की मदद करते हैं या उसका चैन हराम करते हैं .





फेसबुक दीवार
दीवार
मेरी
आपकी
पडोसी की
हर किसी की .
......................
हिफाज़त करे
मेरी
आपकी
पडोसी की
हर किसी की .
............................
राहत की साँस
मेरी
आपकी
पडोसी की
हर किसी की .
...........................
श्रृंगार भीतरी ,शान बाहरी,
मेरी
आपकी
पडोसी की
हर किसी की .
......................
अब बन गयी
ज़रुरत
दिलों की भड़ास की ,
उत्पाद प्रचार की ,
वोट की मांग की ,
किसी के अपमान की ,
किसी के सम्मान की .
..................................
भरा जो प्यार दिल में
दिखायेगा दीवार पर ,
भरा जो मैल मन में
उतार दीवार पर ,
बेचना है मॉल जो
प्रचार दीवार पर ,
झुकानी गर्दन तेरी
लिखें हैं दीवार पर ,
पधारी कौन शख्सियत
देख लो दीवार पर .
.........................................
मार्क जुकरबर्ग ने
संभाला एक मोर्चा ,
देखकर गतिविधि
बैठकर यही सोचा ,
दीवार सी ही स्थिति
मैं दूंगा अंतर्जाल पर ,
लाऊंगा नई क्रांति
फेसबुक उतारकर ,
हुआ कमाल जुट गए
करोड़ों उपयोक्ता ,
दीवार का ही काम अब
फेसबुक कर रहा ,
जो चाहे लिख लो यहाँ ,
जो चाहे फोटो डाल लो ,
क्रांति या बबाल की
लहर यहाँ उफान लो ,
करे कोई ,भरे कोई ,
नियंत्रण न कोई हद ,
जगायेगा कभी लगे
पर आज बन गया है दर्द .
..........................................
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
[PUBLISHED IN JANWANI''S PATHHAKVANI ON 22MAY2015]